सोच रहा हूँ काग़ा आखिर क्यों संदेसा लाएगा
चारदिवारी पर तो हमने कांच बिछाकर रखा है
देखें उसके चाहने वाले रीस कहाँ तक करते हैं
हमने छत पे उसकी ख़ातिर चाँद मंगाकर रखा है
सोहबत की तासीर से शायद क़ुदरत भी वाक़िफ ही थी
उसने दिल को ज़ेहन से थोड़ा दूर बिठाकर रखा है
इक दिन मैं अपने बेटे के नाम से जाना जाऊंगा
बाप ने दिल ही दिल में ये अरमान सजाकर रखा है
आखिर तक वो ना माना तो दिल का ज़ख्म दिखा दूंगा
आड़े वक़्त को तरकश में ये तीर छुपाकर रखा है
चारदिवारी पर तो हमने कांच बिछाकर रखा है
देखें उसके चाहने वाले रीस कहाँ तक करते हैं
हमने छत पे उसकी ख़ातिर चाँद मंगाकर रखा है
सोहबत की तासीर से शायद क़ुदरत भी वाक़िफ ही थी
उसने दिल को ज़ेहन से थोड़ा दूर बिठाकर रखा है
इक दिन मैं अपने बेटे के नाम से जाना जाऊंगा
बाप ने दिल ही दिल में ये अरमान सजाकर रखा है
आखिर तक वो ना माना तो दिल का ज़ख्म दिखा दूंगा
आड़े वक़्त को तरकश में ये तीर छुपाकर रखा है
इस उम्दा ग़ज़ल को पढ़वाने के लिए आभार!
ReplyDeleteBadon ka ashirwaad hai Sir... Hausla badhaane ke liye shukriya!
DeleteVishal
सोहबत की तासीर से शायद क़ुदरत भी वाक़िफ ही थी
ReplyDeleteउसने दिल को ज़ेहन से थोड़ा दूर बिठाकर रखा है
A simple basic animal instinct of humans and their response explained so beautifully.
Thanks! You've understood what I wanted to write.
DeleteGod Bless!
बहुत ही उम्दा गजल |
ReplyDeleteSakhi: सोहबत की तासीर से शायद क़ुदरत भी वाक़िफ ही थी
ReplyDeleteउसने दिल को ज़ेहन से थोड़ा दूर बिठाकर रखा है
Kya khoob likha hai