कई बार हमको मुहब्बत हुई
मगर तू भी दिल से न रुख़्सत हुई
तुझे सोचने बैठ जाता हूँ फिर
तुझे सोचने से जो फ़ुर्सत हुई
मुहब्बत के दुश्मन ख़बरदार हों
हुई फिर किसी को मुहब्बत हुई
चलन बन गया चाक-दामन मेरा
मेरी उस गली में वो इज़्ज़त हुई
वो अब चाहिए अब नहीं चाहिए
ये चाहत हुई या कि नफ़रत हुई
मगर तू भी दिल से न रुख़्सत हुई
तुझे सोचने बैठ जाता हूँ फिर
तुझे सोचने से जो फ़ुर्सत हुई
मुहब्बत के दुश्मन ख़बरदार हों
हुई फिर किसी को मुहब्बत हुई
चलन बन गया चाक-दामन मेरा
मेरी उस गली में वो इज़्ज़त हुई
वो अब चाहिए अब नहीं चाहिए
ये चाहत हुई या कि नफ़रत हुई
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (14-05-2016) को "कुछ जगबीती, कुछ आप बीती" (चर्चा अंक-2342) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बढ़िया ग़ज़ल
ReplyDeletebahut dinon baat magar laajawab!!
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