मां-बाप कि ग़ुर्बत पे यूँ पड़ता रहा पर्दा
भाई कि कमीज़ों को बड़े शौक़ से पहना
जिसने कभी उतरन नहीं पहनी हो क्या जाने
खद्दर का लबादा मुझे क्योंकर नहीं चुभता
कल मेरा था, अब उसका है कल होगा किसी का
मैं उसका था मैं उसका हूँ मैं उसका रहूँगा
जिसने मुझे आज़ाद किया क़ैद-ए-बदन से
मैं उसको दुआएं नहीं देता तो क्या करता
भाई कि कमीज़ों को बड़े शौक़ से पहना
जिसने कभी उतरन नहीं पहनी हो क्या जाने
खद्दर का लबादा मुझे क्योंकर नहीं चुभता
कल मेरा था, अब उसका है कल होगा किसी का
मैं उसका था मैं उसका हूँ मैं उसका रहूँगा
जिसने मुझे आज़ाद किया क़ैद-ए-बदन से
मैं उसको दुआएं नहीं देता तो क्या करता