Monday, November 5, 2012

जहाँ देखो वहां आता नज़र है
तो मुमकिन है ख़ुदा भी दर-ब-दर है

अज़ाबों में यहाँ हर  बा-ख़बर है
मज़े में है वही  जो बे-ख़बर है

उठा लें तेग़ ग़ालिब, ज़ौक-ओ-मोमिन
हुआ शाइर बहादुर शाह ज़फ़र है

यक़ीनन  कोई  तुमको चाहता है
हसीं होना मुहब्बत का असर है

बिखेरा उसने हर इक रंग लेकिन
वही दिखता है जो रंग-ए -नज़र है 

1 comment:

  1. पढ़ कर ही पता चलता है कि एक एक पंक्ति पर कितनी मेहनत की गयी है | 'खुदा दर-ब-दर है' , इस लाइन के तो कहने ही क्या !

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