ख़्वाबों की ताबीर सोचता रहता हूँ
मैं आँखों से नींद पोंछता रहता हूँ
ज़ालिम और मज़लूम का क़िस्सा लिखने को
मैं ख़ुद अपना मांस नोचता रहता हूँ
मैंने जिस पल तुझको भूलना चाहा था
अब अक्सर उस पल को कोसता रहता हूँ
जिसने मेरे शेर पढ़े अखबारों में
वो क्या जाने मैं क्या सोचता रहता हूँ
आँखें ही उजियाला हैं समझाने को
मैं सूरज की और देखता रहता हूँ
मैं आँखों से नींद पोंछता रहता हूँ
ज़ालिम और मज़लूम का क़िस्सा लिखने को
मैं ख़ुद अपना मांस नोचता रहता हूँ
मैंने जिस पल तुझको भूलना चाहा था
अब अक्सर उस पल को कोसता रहता हूँ
जिसने मेरे शेर पढ़े अखबारों में
वो क्या जाने मैं क्या सोचता रहता हूँ
आँखें ही उजियाला हैं समझाने को
मैं सूरज की और देखता रहता हूँ